Mahadevi Verma – श्रीमती महादेवी वर्मा हिंदी साहित्य में आधुनिक युग की मीरा के नाम से विख्यात हैं । इसका कारण यह है कि मीरा की तरह महादेवी जी ने अपनी विरह – वेदना को कला के रंग में रंग दिया है । महादेवी जी का जन्म सन् 1907 में उत्तर प्रदेश के फरुखाबाद नामक नगर में हुआं था । इनकी प्रारंभिक शिक्षा इंदौर में हुई । माता के प्रभाव ने इनके हृदय में भक्ति भावना के अंकुर को जन्म दिया । शैशवावस्था में ही इनका विवाह हो गया था । आस्थामय जीवन की साधिका होने के कारण ये शीघ्र ही विवाह बंधन से मुक्त हो गईं ।
सन् 1933 में इन्होंने प्रयाग में संस्कृत विषय में – एम० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की । प्रयाग महिला विद्यापीठ के आचार्य पद के उत्तरदायित्व को निभाते हुए भी वे साहित्य | साधना में लीन रहीं । सन् 1987 ई० में इनका निधन हो गया । इन्हें साहित्य अकादमी एवं ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया था । भारत सरकार ने इन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया था ।
रचनाएँ – महादेवी जी ने पद्य एवं गद्य दोनों में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है । कविता में अनुभूति तत्त्व की प्रधानता है तो गद्य में चिंतन की । उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं –
Mahadevi Verma Poetry
नीहार – उनका पहला गीत काव्य संग्रह है। इस संग्रह में १९२४ से १९२८ तक के रचित गीत संग्रहीत हैं। नीहार की विषयवस्तु के सम्बंध में स्वयं महादेवी वर्मा का कथन उल्लेखनीय है- “नीहार के रचना काल में मेरी अनुभूतियों में वैसी ही कौतूहल मिश्रित वेदना उमड़ आती थी, जैसे बालक के मन में दूर दिखायी देने वाली अप्राप्य सुनहली उषा और स्पर्श से दूर सजल मेघ के प्रथम दर्शन से उत्पन्न हो जाती है।” इन गीतों में कौतूहल मिश्रित वेदना की स्वाभाविक अभिव्यक्ति हुई है।
रश्मि – रश्मि महादेवी वर्मा का दूसरा कविता संग्रह है। इसमें १९२७ से १९३१ तक की रचनाएँ हैं। इसमें महादेवी जी का चिंतन और दर्शन पक्ष मुखर होता प्रतीत होता है। अतः अनुभूति की अपेक्षा दार्शनिक चिंतन और विवेचन की अधिकता है।
नीरजा – में रश्मि का चिन्तन और दर्शन अधिक स्पष्ट और प्रौढ़ होता है। कवयित्री सुख-दु:ख में समन्वय स्थापित करती हुई पीड़ा एवं वेदना में आनन्द की अनुभूति करती है। वह उस सामंजस्यपूर्ण भावभूमि में पहुँच गई हैं, जहाँ दुःख सुख एकाकार हो जाते हैं और वेदना का मधुर रस ही उसकी समरसता का आधार बन जाता है। सांध्यगीत में यह सामंजस्य भावना और भी परिपक्व और निर्मल बनकर साधिका को प्रिय के इतना निकट पहुँचा देती है कि वह अपने और प्रिय के बीच की दूरी को ही मिलन समझने लगती है।
सांध्यगीत – में १९३४ से १९३६ ई० तक के रचित गीत हैं। इन गीतों मं नीरजा के भावों का परिपक्व रूप मिलता है। यहाँ न केवल सुख-दुख का बल्कि आँसू और वेदना, मिलन और विरह, आशा और निराशा एवं बन्धन-मुक्ति आदि का समन्वय है। दीपशिखा में १९३६ से १९४२ ई० तक के गीत हैं। इस संग्रह के गीतों का मुख्य प्रतिपाद्य स्वयं मिटकर दूसरे को सुखी बनाना है। यह महादेवी की सिद्धावस्था का काव्य है, जिसमें साधिका की आत्मा की दीपशिखा अकंपित और अचंचल होकर आराध्य की अखंड ज्योति में विलीन हो गई है।
दीपशिखा – दीपशिखा में महादेवी वर्मा के गीतों का अधिकारिक विषय ‘प्रेम’ है। पर प्रेम की सार्थकता उन्होंने मिलन के उल्लासपूर्ण क्षणों से अधिक विरह की पीड़ा में तलाश की है।
Mahadevi Verma Books
- श्रृंखला की कड़ियां
- अतीत के चलचित्र
- स्मृति की रेखाएं
- पथ के साथी
- क्षणदा
भाषा शैली – महादेवी वर्मा मूलरूप से कवयित्री हैं । इनकी भाषा – शैली अत्यंत सरल , भावपूर्ण , प्रवाहमयी तथा सहज है । ‘ मेरे बचपन के दिन ‘ लेखिका की बचपन की स्मृतियों को प्रस्तुत करने वाला आलेख है । इसमें लेखिका ने सहज – सरल भाषा का प्रयोग किया है जिस में कहीं – कहीं तत्सम प्रधान शब्दों का प्रयोग भी दिखाई देता है , जैसे – स्मृति , विचित्र , आकर्षण , रुचि , विद्यापीठ तथा विदेशी शब्द – दर्जा , नक्काशीदार , उस्तानी , तुकबंदी , डेस्क , कंपाउंड में कहीं – कहीं प्रयोग . किए गए हैं । इस प्रकार के शब्द प्रयोग से भाषा में प्रवाहमयता आ गई है ।
लेखिका की शैली आत्मकथात्मक है जिसमें लेखिका का व्यक्तित्व तथा स्वभाव उभर आता है , जैसे उर्दू – फ़ारसी नहीं पढ़नी है इसके लिए लेखिका लिखती है – ” बाबा चाहते थे कि मैं उर्दू – फ़ारसी सीख लूँ , लेकिन वह मेरे वश की नहीं थी । मैंने जब एक दिन मौलवी साहब को देखा तो बस , दसरे दिन मैं चारपाई के नीचे जा छिपी । ” बीच – बीच में संवादात्मकता से पाठ में रोचकता आ गई है । इस प्रकार लेखिका की भाषा – शैली रोचक , स्पष्ट , प्रभावपूर्ण तथा भावानुरूप है
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